आज प्रस्तुत है ग़ालिब साहब की यह गज़ल जो मुझे बेहद पसंद है
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने , न होता मैं तो क्या होता
हुआ जब ग़म से यों बेहिस, तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता ग़र जुदा तन से , तो जानू पर धरा होता
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया ,पर याद आता है
वह हर एक बात पर कहना कि यों होता तो क्या होता
सही है हम हैं इसलिये दुनिया की ये खुशियाँ है , ये ग़म हैं , ये परेशानियाँ हैं ,अगर हम पैदा ही नहीं होते तो हमारे लिये तो ये सब कुछ नहीं होता ।
हमारी भी फ़ेवरिट।
जवाब देंहटाएंलेकिन ’बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल’ के बाद।
उम्दा पोस्ट के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंब्लॉग4वार्ता की 150वीं पोस्ट पर आपका स्वागत है