शनिवार, 25 दिसंबर 2010

बोल के लब आज़ाद हैं तेरे

फैज़ का यह मशहूर इंकलाबी कलाम है , जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में है , और दुनिया के हर संघर्षशील आदमी के पक्ष में है ।  


         फ़ैज़ की एक नज़्म  
    जन्म शताब्दी पर विशेष रूप से प्रस्तुत

बोल के लब आज़ाद हैं तेरे

बोल के लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब एक है तेरी
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल: के जाँ अब तक  तेरी है
देख के: आहंगर दुकाँ में

तुंद हैं शोले , सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे कुफ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल, ये: थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्म- ओ –ज़बाँ की मौत से पहले
बोल, के:सच ज़िन्दा है अब तक
बोल , जो कुछ कहना है कहले

सुतवाँ =सुडौल ,आहंगर =लोहार , तुंद=तेज़
आहन =लोहा , कुफ़लों के दहाने =तालों के मुख , 

( साभार - फैज़ अहमद फैज़ की प्रतिनिधि कवितायें - राजकमल पेपरबैक्स

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

न होता मैं तो क्या होता

आज प्रस्तुत है ग़ालिब साहब की यह गज़ल जो मुझे बेहद पसंद है 

न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता 
डुबोया मुझको    होने  ने  , न होता मैं तो क्या होता 

हुआ जब ग़म से यों बेहिस, तो ग़म क्या सर के कटने का 
न  होता  ग़र  जुदा  तन  से  ,  तो  जानू  पर  धरा  होता  


हुई  मुद्दत  कि   ग़ालिब मर गया  ,पर  याद  आता  है 
वह हर एक बात पर कहना कि यों होता तो क्या होता

                                          सही है हम हैं इसलिये दुनिया की ये खुशियाँ है , ये ग़म हैं , ये परेशानियाँ हैं ,अगर हम पैदा ही नहीं होते तो हमारे लिये तो ये सब कुछ नहीं होता ।